Friday, January 8, 2010

मैं स्वपन देख रहा हूँ/राजबीर देसवाल


मैं स्वपन देख रहा हूँ
ठहरो
मुझे जगाना नहीं

मैं देख रहा हूँ
बहारों और खिज़ाओं का
उन्मुक्त आलिंगन
मैं देख रहा हूँ
बेकली और चैन का
बेमेल संगम
मैं देख रहा हूँ
रकीबों से रकीबों का
गठ-जोड़ बंधन
मैं देख रहा हूँ
काटों पर छिड़ी
कलियों की सरगम
मैं देख रहा हूँ
लगाते शास्त्र स्वयं
घावों को मरहम
मैं देख रहा हूँ
शुआओं को सहज
सहलाती शबनम
मैं देख रहा हूँ
मृत्यु का मृत्यु पे क्रंदन
मैं देख रहा हूँ
बूढ़े बरगद पर आया
भरपूर यौवन
मैं देख रहा हूँ
नाव तूफानों का करती
खैरमकदम

मैं स्वपन देख रहा हूँ
ठहरो
मुझे जगाना नहीं ।

मगर यह कहीं
मेरी मानसिकता के विरुद्ध
कोई जंग तो नहीं
कोई साजिश तो नहीं
क्योंके मैंने तो देखा है
इंसा को इंसा का दुश्मन
आग को पानी का दुशमन
रौशनी को तम का दुश्मन
तूफ़ान को कश्ती का दुश्मन
भाई और भाई की अनबन
मज्हबो मुल्को कौम की उलझन
इंसानियत भटकती बन बन
हैवानियत इतराती बन ठन
निसंदेह, यह मेरी मानसिकता के विरुद्ध
एक जंग ही तो है
एक साजिश ही तो है ।
गवारा है मुझे फिर भी
ये जंग और ये साजिश
गवारा है मुझे फिर भी
हसीन धोखे की ख्वाइश

मैं स्वपन देख रहा हूँ
ठहरो
मुझे जगाना नहीं
राजबीर देसवाल

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