Sunday, September 13, 2009

आज गुस्ताख हुई जाती है क्यूं बादे नसीम

आज गुस्ताख हुई जाती है क्यूं बादे नसीम
क्या किसी शोख की ज़ुल्फों से लिपट आई है
वो हैं ज़ालिम कि मेहरबान मैं ये कैसे पूछूं
मेरी हिम्मत ने बिखरने की कसम खाई है
जिंदगी बे-हिसो नाकाम हुई जाती है
इसमे हंगामा ऐ जज़्बात तो तो पैदा कर दे
शहर खामोश हुस शहर ऐ खामोशा की तरह
इसमे जीने सी कोई बात तो पैदा कर दे
ए मेरी जान-ऐ-ग़ज़ल तेरी वफाओं की कसम
तू नहीं साथ तो जीने मैं कोई जोश नहीं
मैं हूँ मख़मूर मये इश्क के पैमानों से
सागर-ओ-मीना-ओ-साकी का मुझे होश नहीं
मेरी पेशानी पे उगती ये पसीने की कली
मुझ को दिन रात के सब राज़ बता देती है
वो जो असरार छुपे रहते हैं नज़रों से मेरी
गोशे एहसास को चुपके से सुना देती है
जिंदगी फत्ब-ऐ-नब्बाज़ की मोहताज नहीं
नब्ज़ चलती हुई मालूम है कब थम जाए
और नस नस मैं ये बहता हुआ सरगरम लहू
बर्फ बन जाए या सड़कों पे कहीं जम जाए
मेरे महबूब ग़नीमत हैं ये लम्हे जब हम
एक दूजे के लिए ख्वाब बुना करते हैं
और महसूस किया करते हैं साँसों कि तपिश
बस यही पल है की भरपूर जिया करते है
राजबीर देसवाल

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