Sunday, December 6, 2009

आज ६ दिसम्बर को / रह गए तो बस !

रह गए तो बस!!!

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अभी कुछ क्षण पहले

क्षितिज के उस पार

वो ढलता सूरज

और आसमान पर उभरता

एक चांदी की लकीर का बादल ।

कुछ ख्यालों में खो गया मैं

आँख मूँद ली और तब सुध ली जब

सहसा एक धमाका हुआ ।

शायद बिजली कडकी

मैंने बादल की तरफ़ नज़रें उठाई

चांदी की लकीर रक्त-रंजित पाई

खूब जम कर खून की बारिश हुई

सब कुछ सैलाब से लबालब हुआ

हिन्दू मरा, मुसलमा मरा, सिख व इसाई मरा ।

रह गए तो बस,

नानक मुहम्मद ईसा या राम !

या फिर अकेला मैं ,

शायद इस हादसे की

तहरीर लिखने को !!!

राजबीर देसवाल

2 comments:

Anonymous said...

हम सब बचे रह गए कि हमें बचानी है मनुष्यता, इससे पहले कि लोप हो जाए धरती से, एक आखिरी सांस उसकी बचा लें..बहुत मार्मिक लिखा है। आज के दिन हम सब डिस्टर्ब हैं कहीं ना कहीं..
लिखते रहिए...
गीताश्री

gap-shap said...

har ghatna kuch na kuch sikha jati hai,kuch dard to kuch ahsas chor jati hai....shayad anubhav isi ka nam hai,....khair nai pidi in sabse aage or hat kar sochti hai,purane tariko or vicharo se alag unki dunia aage badne walon ke liye hai,itihas ke panno mai unke liye ye sirf ek ghatna matr hi hogi.ranjishon or nafraton se dur sohard ki dunia..