Saturday, January 9, 2010

मेरा आसमान आज फिर डह गया

मेरा आसमान आज फिर डह गया
रोज़ डह जाता है
आज फिर डह गया .
न जाने क्यूं
शायद दूर से
लुभावने नजारों की खातिर
रोज़ आसमान को सीमेंट लगाता हूँ
मगर उस पार के
शून्य को देख ही लेता हूँ
क्यूं न उस शून्य में ही
खोकर रह जाऊं
और पा लूं निजात हर रोज़ के
आसमान के डैहने से
सदमे से
मेरा आसमान आज फिर डह गया.
ये बिजली भी
अजीब शै है
ऊपर ही ऊपर
कड़क कर रह जाती है
कभी मुझ पर पड़े
और धराशायी करे
शायद मुझमे ताक़त नहीं
की कहीं भी गिरती गाज के
रस्ते में आ जाऊं
इसी लिए अपने आसमन को
पैबंद लगाता हूँ
मगर
ये थूक के कचे पैबंद
कितनी देर टिकेंगे?
अपनी पे उतर आते हैं
और संभाल नहीं पाते हैं
मेरे आसमान को
मेरा आसमान आज फिर डह गया.
इस आसमान के चाँद-तारे
अपनी निश्चित दूरी पे टिके हैं
मुझे से उनका फासला
ज्यों क त्यों है
बरकरार, बदस्तूर
तारे भी तो टूट जाते हैं
खीचते हैं पृथ्वी की और
मगर मेरा आसमान
मेरे टूटते तारों को भी
जला कर रख कर देता है
गिरने नहीं देता मुझ पर
स्वयम गिर जाता है
मेरा आसमान आज फिर डह गया.
कभी कभी गौर करता हूँ
क्या मेरा आसमान मेरा ही है?
शायद सभी का होता होगा
मगर क्या सभी का आसमान
मेरे आसमान की तरह
चीथड़े चीथड़े रहता है
बिखरने को तैयार
टूटने को तैयार
डैहने को तैयार
शायद मेरे सीमेंट में
वो पकड़ नहीं’
वो जकड नहीं
वरना
टुकड़े टुकड़े डैहने की बजाये
एक बार सारा ही गिरे
और ढाम्फ ले मुझे
इस लायक भी न छोड़े
की में फिर पैबंद लगाऊं
मेरा आसमान आज फिर डह गया।

वैसे भी तो मेरा आसमान
बादल विहीन है
जीण क्षीण है

बस झोंके ही झोंके हैं
गरम हवा के
और इस गरम हवा से बेखबर
में सर उठा कर
अपने आसमान तो सर पर उठाये
गरम हवाओं में
घूमा करता हूँ
मगर डरता हूँ
कहीं ये गरम हवाएं ही
न गिराती हों
मेरे आसमान को
मेरी सोच के बहार है मेरा आसमान.
मेरा आसमान आज फिर डह गया.
रोज़ डह जाता है
आज फिर डह गया
राजबीर देसवाल

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