Sunday, December 12, 2010

चाँद क़ि फितरत

चाँद क़ि फितरत नहीं क़ि दूर रह सके
सीने पे उतर आता है, ख्याल भर से।
उसकी जो रौशनी है वो शीतल है शांत है
धुंदला मगर हो जाता है, मलाल भर से ।
कहते हैं दाग हैं वहां उसके दामा पे
शर्मांता नुक्ताचीनों को, जमाल भर से ।
पूछा क़ि यूँ परेशां क्यूं चाँद तू हुआ
आँखों में उतरा जज्बों के, उछाल भर से ।
एक मर्तबा पूछा कहाँ तू खो गया था चाँद ?
वो छुप गया बदली परे, सवाल भर से ।


राजबीर देसवाल दिसम्बर १२.२०१०.









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